अगस्त्यमुनि। शंख भगवान विष्णु की पूजा का जरूरी हिस्सा है। भगवान विष्णु का यह प्रिय अस्त्र भी है। लेकिन भगवान विष्णु के बदरीनाथ धाम में शंख बजाना वर्जित है। बदरीनाथ धाम में दूर-दूर तक शंख नहीं बजाया जाता है। क्या कभी आपने गौर किया कि भगवान विष्णु का सबसे प्रिय माना जाने वाला शंख इस प्रसिद्घ धाम में क्यों नहीं बजाया जाता है। इसके पीछे एक धार्मिक किवदंति है। बदरीनाथ धाम में शंख न बजने के पीछे का रहस्य रूद्रप्रयाग जनपद के सिल्ला ब्राह्मण गांव में चंद्रभागा नदी के समीप स्थित प्रसिद्घ साणेश्वर महाराज के भव्य मंदिर से जुड़ा हुआ है। लोक कथाओं के आधार पर कहा जाये तो इस पुरातन स्थान पर हजारों वर्षों से भगवान साणेश्वर महाराज की पूजा-अर्चना होती आ रही है। लेकिन कालांतर में इस स्थानपर दैंत्यों का बोलबाला हो गया था। ये दैंत्य नरभक्षी हुआ करते थे। सिल्ला ब्राह्मण गांव से जो भी पुजारी महाराज जी की पूजा करने जाते तो दैंत्य उसका भक्षण कर देते थे। कहा जाता है कि जब गांव में महाराज की पूजा के लिए एकमात्र ब्राह्मण शेष बच गया तो सत्य के उपासक महात्मा अगस्त्य दया भाव दिखाने के लिए इस स्थान पर चले आए। महात्मा अगस्त्य ने उस दिन की पूजा का जिम्मा स्वयं ले लिया। जब महर्षि अगस्त्य साणेश्वर महाराज का भोग लगा रहे थे तो अचानक वहां मायावी देंत्य प्रकट हो गए। काफी समय तक महर्षि अगस्त्य ने दैंत्यों का सामना किया, लेकिन जब उनका उत्पात बढ़ता ही गया तो वे संकट में पड़ गए। चिंतित महर्षि दैंत्यों का संहार करने के लिए अपनी कोख को मलने लगे और मां भगवती का ध्यान करने लगे। जैसे ही उन्होंने मां भगवती का ध्यान किया तो अचानक वहां मां भगवाती कुष्मांडा देवी प्रकट हो गई। सिंह वाहिनी माता कुष्मांडा ने त्रिशूल और कटार से दैंत्यों का संहार करना शुरू कर दिया। माता के प्रचंड स्वरूप को देख दैंत्य भयभीत हो गए और दो दैंत्य आतापी और बातापी भागने में सफल हो गए। उनमें से बातापी नाम का दैंत्य भागकर बदरीनाथ धाम में शंख में जाकर छिप गया और दूसरा आतापी नाम का राक्षस सिल्ला गांव से करीब छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित सिल्ली में मंदाकिनी नदी में जा छिपा। कुष्मांडा माता द्वारा उस दैत्य को बाधित तो कर दिया गया परंतु शंख की ध्वनि अत्यंत शक्तिशाली व ऊर्जावान होती है और इस ध्वनि से वह दैंत्य दोबारा सक्रिय ना हो जाए, मान्यता है उस दिन से बरीनाथ धाम में शंख नहीं बताया जाता है। शंख न बजने के अलावा बदरीनाथ धाम में सभी धार्मिक प्रक्रियाएं संपन्न की जाती हैं। –माता कुष्मांडा को मानते हैं साणेश्वर महाराज की बहिन माता कुष्मांडा को भगवान साणेश्वर महाराज अपनी बहिन मानते हैं। यही वजह है कि जब भी 12 वर्षों में साणेश्वर महाराज मंदिर में महायज्ञ का आयोजन होता है तो साणेश्वर महाराज अपनी बहिन को बुलाना नहीं भूलते हैं। पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ माता कुष्मांडा की डोली को सिल्ला गांव लाया जाता है, और माता के स्पर्श के बाद ही यज्ञकुंड को खोला जाता है। जब महायज्ञ संपन्न हो जाता है तो माता कुष्मांडा को एक बेटी के रुप में विदा किया जाता है। इस दौरान ध्याणियों की आंखें नम हो जाती हैं। इस मार्मिक दृश्य को करीब से देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग साणेश्वर मंदिर में पहुंचते हैं। रूद्रप्रयाग जनपद के कुमड़ी गांव में माता कुष्मांडा का मंदिर स्थित है।